हम इंसान कितना बोलते हैं।
खुशी के वक्त,गम के वक्त और उस वक्त भी जब न तो हम खुशी में होते हैं और न ही गम में।
हमारी भाषा हमारे विचारों का आईना है।
हमारे हर भाव को, हमारे एहसास को हमारी भाषा बड़ी ही आसानी से लोगों तक पहुंचा देती है।
पर एक समय ऐसा भी आता है हमारी जिंदगी में जब हम अपनी बात कहने के लिए, अपनी भावनाएं औरों तक पहुंचाने के लिए शब्दों का चयन और भाषा का उपयोग करना छोड़ देते हैं।
सीधे शब्दों में कहूं तो हम बोलना ही छोड़ देते हैं।
और अपना लेते हैं मौन की भाषा।
'मौन' वैसे तो ये चुप्पी का पर्याय है।
पर अक्सर मौन वो सब कुछ कह जाता है जो कई बार हमारे शब्द नहीं कहते।
मौन न जाने कितनी बार हमें और हमारे शब्दों को धराशाई होने से बचाता है।
सच कहूं तो मौन के पास एक विचित्र शक्ति होती है ये कभी- कभी उस शब्दों की कमी को पूरा करता है,कभी-कभी उन लोगों को खटकता भी है जिन्होंने आपसे अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की उम्मीद लगाई थी।
और हां एक खास बात और मौन तब सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है जब इसे कोई ऐसा व्यक्ति अपना ले जिसे एक समय शब्दों से बेहद लगाव था और जो केवल कहना जानता था।
बस कह देना, सबकुछ कह देना।
_ अंकिता जैन 'अवनी '
लेखिका/कवयित्री
अशोकनगर म.प्र